मजबूर : मजदूर
छोड़ के गावं के घर
जिस तरह शहर आये थे हम
आज कुछ उसी तरह
वैसे ही वापिस जा रहे हैं हम
बस फर्क इतना है
तब विदा करती आँखों में ख़ुशी के आसूं थे
और अब इस दुःख की घड़ी में
लड़खड़ाते क़दमों के दर्द भरे आंसू हैं
किसी ने नही सोचा एक पल के लिए भी
जिनके सपनो का घर हमने सजाया था
जिनके घरों की दीवारों को हमने रंगा था
दो वक़्त की रोटी या सर पे छत हो
किसी ने नही सोचा एक पल लिए भी
किसी ने नही देखा मुड़ कर एक नज़र भी
किसके काम करने से ये देश दौड़ता है
किसी ने नहीं पूछा एक पल के लिए भी
क्या परिवार सिर्फ बातों और वादों से पलता है
क्या किसी ने सोचा उस सड़क पर चलने वालों का भी खून दौड़ता है ?
ये दुनिया दो रंगो में बनी है
एक तरफ तो सड़कें भी रेशम से सजी हैं
और दूसरी तरफ आधी दुनिया जिस्म से नंगी है
कैसे भरोसा होगा मनुष्य को इंसानियत पर
क्यूंकि यहाँ कुछ हवामहलों में बैठे निर्णय लेने वाली हस्ती हैं..
कुछ तो गड़बड़ी है सोच में उनकी या हमारी
एक तरफ उड़न तश्तरियां जान बचाती हैं
और दूसरी तरफ कोई इज़्ज़त नहीं है हमारी
ये भेद - भाव दौलत का है साहब
मेहनत की चिंता होती तो कदर होती आज हमारी
ये ह्रदय थोड़ा मजबूत रहा है अपना
जो आगे भी पग - पग पे गलतियां माफ़ करता जायेगा
बस थोड़ा ध्यान रखना सभी अपना
मजदूर तो पहियाँ है देश का फिर से यूँ ही चलता जायेगा
Harshvardhan Sharma©
Very nice
ReplyDeleteभेद-भाव toh chlta rhega
ReplyDeletewhat matters the most is - we stand in unity
btw nice thought🔥
True😇💯
ReplyDelete��✔️
ReplyDeleteवर्तमान हालात में सटीक अभिव्यक्ति। सुन्दर प्रस्तुति। keep it up.शुभकामनायें।
ReplyDelete👌🏻💯
ReplyDeleteWell expressed 👍
ReplyDeleteHeart touching
ReplyDeleteवर्तमान कसौटी पर खरी उतरती अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteअति उत्तम |
perfect word about real life....beautifull
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